Poem 1.2

मुझे उस शहर जाना है...

मुझे उन शहरों की जोह है जहाँ पुरानी किताबों की दुकाने हों, जिन किताबों के जिल्द थोड़े नाजुक और पन्ने पीले हों। 

दुकान में बैठा कोई बूढ़ा अपने आप में मस्त हो, दुनिया जहान से जुदा, किसी खाके में कैद न उसके अरमान हो।

दुकान का दरवाज़ा हल्के हरे रंग का हो, और दीवारें सफेद हो। इक कोने से ऊपर सीढियां वहां ले जाएं जहां, एक घर हो, जिसमें एक आईना, एक चूल्हा, एक बिस्तर, चाय की केतली, और एक गलीचा हो। शायद एक औरत भी हो। बूढ़े की पत्नी। 

दुकान के बाहर शोर लेकिन अंदर सन्नाटा हो, जिसमें उन नाजुक जिल्द की किताबों की उखड़ी हुई सांसों की ध्वनि, मेरे दिल में ऐसे जाए जैसे कोई गज़ल - सुबह की धुंध में छुपी हुई, अपने बिखर जाने के गम में ताउम्र कैद हो। 

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